1857 Ki Kranti In Hindi | 1857 की क्रांति

1857 की क्रांति

मुगल साम्राज्य के पतन के पश्चात् देश में उत्पन्न अराजकता से राजस्थान भी अछूता नहीं रहा। औरंगजेब की मृत्यु से उत्पन्न शक्ति रिक्तता को एकबारगी तो मराठों ने भर दिया। मराठों ने दक्षिण में प्रभुत्व स्थापित करने के पश्चात् मालवा और गुजरात में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था।

अतः अब उनके लिए राजस्थान में प्रवेश करना सहज हो गया था। मई 1711 ई में प्रथम बार मराठों ने मंदसौर के निकट मेवासी क्षेत्र से पन एकत्र किया था। इस घटना से चिंतित उदयपुर के महाराणा संग्राम सिंह ने पहले जयपुर के शासक जयसिंह और बाद में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह से मराठा समस्या के बारे में विचार-विमर्श किया था। 1724 ई. के बाद राजस्थान में मराठा आक्रमणो में तेजी आई। इसी बीच अप्रैल 1734 ई. में बूंदी के पदच्युत शासक बुद्धसिंह ने मराठा सहायता प्राप्त कर दलेल सिंह को गद्दी से हटा दिया।

राजस्थान के किसी शासक द्वारा आन्तरिक संघर्ष में मराठों को आमंत्रित करने का यह प्रथम अवसर था। बाद में तो राजस्थान में मराठों का हस्तक्षेप बढ़ता ही गया।1735 ई. में मालवा पर अधिकार करने के बाद मराठो को राजस्थान पर आक्रमण करने के लिए एक आसान मार्ग मिल गया राजस्थान में मराठे कोटा, मेवाड डूंगरपुर बासवाड़ा में घुसपैठ कर वहाँ से धन पाने के बाद कुछ समय तक संतुष्ट रहे लेकिन शीघ्र ही वे राजाओं को ही नहीं वन सेठ साहूकारों को भी लूटने लगे।

उन्होंने राजस्थान के नरेशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना भी प्रारम्भ कर दिया। बूंदी जोधपुर और जयपुर रियासतों में उनका प्रवेश इसी बहाने हुआ।नादिर शाह के आक्रमण के समय भी मराठों ने हिन्दू धर्म के नाम पर राजस्थान के राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया।

लेकिन मुगल दरबार में दलबन्दी के कारण राजपूत शासक भी परस्पर लड़ने लगे। इस प्रकार केन्द्र में उत्पन्न शून्यता के पूर्ति के लिए मराठा राजस्थान में आने लगे। शाहू ने पेशवा बाजीराव को राजस्थान से चौथ और सरदेशमुखी प्राप्त करने का आदेश दिया।

1732 ई. में सवाई जयसिंह जो मालवा का सूबेदार बना उसे मराठों ने घेर लिया। जयसिंह ने पराजय स्वीकार कर ली और 28 परगने मराठों को देने पड़े। 1761 से 1791 के मध्य राजस्थान में राजपूत शासकों की कमजोर स्थिति के कारण विभिन्न राज्यों पर मराठों का प्रभुत्व हो गया।

राजस्थान में बढ़ते मराठा हस्तक्षेप ने जयसिंह तथा अन्य राजपूत राजाओं की आखे खोल दी। मराठों से मुक्ति पाने के लिए धन का सहारा लिया गया। पर जब धन लेने के बाद भी मराठों ने मालवा खाली नहीं किया, तो पुनः संगठित प्रयास किए जाने लगे। अब धन के बजाय शक्ति के प्रयोग से मराठों को राजस्थान से निकालने का निश्चय किया गया।

अतः जुलाई 1734 ई. में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, किशनगढ़, नागौर बीकानेर के शासक मेवाड में हुरडा नामक स्थान पर एकत्र हुए और 17 जुलाई 1734 ई. को एक संधिपत्र पर हस्ताक्षर हुए, जिसके अनुसार राजस्थान के सभी शासकों ने विपत्ति के समय सहयोग देने का वादा किया।

वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरुद्ध कार्रवाई हेतु रामपुरा में एकत्र होना तय किया। किसी राजा के शत्रु को अपने राज्य में आश्रय या शरण न देने की शपथ ली। परन्तु इस सम्मेलन के वांछित परिणाम नहीं निकले क्योंकि रियासती शासकों में आपसी द्वेष था।

प्रतिभा सम्पन्न और क्रियाशील नेतृत्व का अभाव रहा। रियासतों की स्वार्थी नीतिया और कार्य सम्भवतः सम्मेलन की असफलता के लिए उत्तरदायी थे। 1735 ई. में मुगल सम्राट और राजपूत शासकों की सेनाओं ने मराठों को खदेड़ने का पुनः असफल प्रयास किया।

पेशवा अक्टूबर 1735 ई. में उत्तर भारत की यात्रा पर निकला। उसने महाराजा जगतसिंह का आतिथ्य स्वीकार किया और उपहार तथा चौथ का समझौता हुआ। फिर वह जयपुर आया । जयसिंह ने मराठों और मुगल सम्राटों में समझौता करवाना चाहा, पर वह असफल रहा। पेशवा की राजस्थान यात्रा का परिणाम यह निकला कि मुगलों के साथ-साथ राजपूत मराठों के भी करदाता बन गए।

1738 ई. में मुगल सम्राट की ओर से निजाम को बिना युद्ध किए ही दुराहसराय की अपमानजनक संधि करनी पड़ी, जिसके अनुसार मराठों को मालवा की सूबेदारी और 50 लाख रुपये प्राप्त हुए। 1742 ई. में मराठों ने मारवाड़ में प्रविष्ट होकर सोजत, रायपुर और जैतारण परगनों में चौथ वसूल करना आरम्भ कर दिया।

1787 ई. में राजपूतों ने संगठित होकर तूगा नामक स्थान पर मराठों को परास्त किया। 1791 ई. के बाद मराठा शक्ति क्षीण होने लगी। इस समय दक्षिण भारत में अंग्रेजों ने अपने पैर जमा लिए थे और वे राजस्थान में घुसने का प्रयास कर रहे थे। राजस्थान के राज्यों में उत्तराधिकार के संघर्ष और सामन्ती प्रतिस्पर्धा के कारण उनकी राजनीतिक स्थिति कमजोर हो गई।

1791 ई. में अम्बाजी इगले ने मेवाड़ के महाराणा को सहयोग दिया। फलस्वरूप डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि क्षेत्रों पर मेवाड़ के महाराणा का अधिकार हो गया। परन्तु रियासती घरानों के आपसी वैमनस्य के कारण अम्बाजी इंगले पूर्ण सफलता नहीं पा सके। 1795 ई. में मेवाड़ पर चूंडावतों का अधिकार हो गया।

अतः उनका अन्य शासकीय समूहों के साथ संघर्ष शुरू हो गया। 1802 ई. में अमीर खां पिंडारी ने नाथद्वारा पर अधिकार कर लिया। भीमसिंह रियासती घरानों के आपसी वैमनस्य को नियंत्रित नहीं कर पाए। 1803 ई. में मेवाड़ के शासक ने जयपुर नरेश के माध्यम से अंग्रेजों से संधि करने का प्रयास किया, पर वह असफल रहे।

1793 ई. से 1813 ई. के मध्य जोधपुर की अव्यवस्था का मुख्य कारण सामन्ती प्रतिस्पर्धा, संकीर्णता एवं उत्तराधिकार का संघर्ष था। दोनों ही पक्षों ने भाद्वैत सैनिकों को ऊँची धनराशि देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। परिणामतः राज्य आर्थिक संकट में घिर गया।

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