भाव विस्तार / पल्लवन (वृद्धीकरण)
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भाव विस्तार, विस्तार लेखन, पल्लवन, वृद्धीकरण अथवा संवर्द्धन का आशय किसी संक्षिप्त, गूढ, पंक्ति, काव्य-सूक्ति, गद्य-सूक्ति अथवा विचार-सूक्ति की विस्तारपूर्वक, सोदाहरण विवेचना करने से है जिसमें लेखक सामान्य पाठक के लिए उस सूक्ति की विस्तृत बातों को बोधगम्य बनाता है। यद्यपि उस काव्य सूक्ति या गद्य-सूक्ति में छिपा हुआ अर्थ-विस्तार पाठक को संकेत तो करता है किंतु पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता जिसे लेखक खोलकर प्रकट करता है।

वास्तव में संक्षिप्तीकरण की गागर में सागर भरने की उक्ति के विपरीत वृद्धीकरण या पल्लवन में गागर में भरे उस सागर को बाहर निकालकर पूरे प्रवाह के साथ पाठक के सामने प्रकट करना होता है
भाव विस्तार के सामान्य नियम
1. भाव विस्तार अथवा वृद्धीकरण में किसी निष्कर्ष वाक्य या सूक्ति वाक्य से संबंधित विचारों अथवा भावों को प्रस्तुत किया जाता है अतः उस शीर्षक कथन को ध्यानपूर्वक पढ़ना व समझना चाहिए।
2. उक्ति अथवा कथन के आशय को प्रकट करने वाले दूसरे तथ्यों को विस्तारपूर्वक प्रकट करना चाहिए।
3. केंद्रीय भाव को स्पष्ट करने वाले समकक्ष उदाहरणों तथा अन्य विद्वानों के कथनों से आशय की पुष्टि करना चाहिए।
4. वृद्धीकरण की भाषा सरल व सुबोध होनी चाहिए।
5. भाव विस्तार में शब्दों के अर्थ लिखने की आवश्यकता नहीं होती और न ही अनावश्यक तथा विषय से असंगत तथ्यों को देना चाहिए।
6. वृद्धीकरण अन्य पुरुष शैली में करना चाहिए, उत्तम पुरुष शैली (मैं यह मानता हूँ, मेरी राय में ऐसा है आदि) में नहीं ।
7. वाक्य छोटे हों, आलंकारिक तथा सामासिक शैलियों से बचा जाना चाहिए।
उदाहरण :
1. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
किसी भी लक्ष्य की आधी प्राप्ति तो कार्य करने के लिए बनी रहने वाली आशा और उत्साह का संचार ही है। जब मनुष्य अपने मन में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संकल्प लिए चलता है तब मार्ग में आने वाली बाधाओं, तकलीफों का प्रभाव कम होता रहता है, क्योंकि उसे निरंतर अपने आप ही से मंजिल तक पहुँच सकने का निश्चय मिलता रहता है। बाहरी प्रोत्साहन का अपना महत्त्व होता है, किंतु मनुष्य जब तक खुद को प्रेरित न करे तब तक लाख अनुकूलताएँ एवं सुअवसर सामने हों, लक्ष्य की प्राप्ति असंभव प्राय ही रहती है । घातक बीमारी से भी व्यक्ति की भीतर से लड़ने की शक्ति उसमें नवीन प्राणों का संचार कर देती है। इसलिए जीत का संबंध शारीरिक-भौतिक सामर्थ्य की तुलना में मानसिक धारणा से अधिक है ।
2. करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
बार-बार अभ्यास करने से मंद बुद्धि या मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन जाते हैं; अर्थात् अभ्यास व्यक्ति का सबसे बड़ा शिक्षक है। बोधिचर्यावतार ने कहा कि “कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो अभ्यास करने पर भी दुष्कर हो।” अँगरेजी में भी एक कथन है कि ‘Practice Makes a Man Perfect’ अर्थात अभ्यास मनुष्य को अपने कार्य में दक्ष बना देता है। वास्तव में निरंतर अभ्यास ही ज्ञानार्जन का मूल मंत्र है। अल्प बुद्धि जन यदि निरंतर अभ्यास कीजिए तो भी विद्वान बन सकते हैं। अभ्यास की बारम्बारता से स्मरण शक्ति और समझ का दायरा बड़ा होता है। ज्ञान आदत बनने लगता है। कवि वृंद ने इस कथन के उदाहरण के रूप में दूसरी पंक्ति यह कही है-‘रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान’ अर्थात् रस्सी का बार बार आना-जाना तो पत्थर की सिल पर भी अपने निशान छोड़ देता है जबकि मनुष्य होता ही नहीं, उसमें बुद्धि का कुछ तत्त्व तो अवश्य होता ही है। तो एकदम जड़ तो होता ही नहीं, उसमें बुद्धि का कुछ तत्त्व तो अवश्य होता ही है।
3. जैसी संगति बैठिए तैसोई फल दीन
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे किसी-न-किसी साथी की आवश्यकता अवश्य होती है, परंतु यह संगति ही उसके व्यक्तित्व निर्माण को प्रभावित करती है। संगति का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है। जिस प्रकार स्वाति की बूँद सीप के संपर्क में आने पर मोती और सर्प के संपर्क में आने पर विष बन जाती है, उसी प्रकार सत्संगति में रहकर मनुष्य का आत्म-संस्कार होता है, जबकि बुरी संगति उसके चारित्रिक पतन का कारण बनती है। अच्छी संगति में रहकर मनुष्य का चारित्रिक विकास होता है। उसकी बुद्धि परिष्कृत होती है। बुरी संगति हमारे भीतर के दानव को जाग्रत करती है। शुक्लजी ने ठीक ही कहा है-कुसंग का ज्वर बड़ा भयानक होता है। दुर्जन का साथ पग-पग पर हानि देता है। अपमान और अपयश देता है।
4. मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है –
अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है ।।
मनुष्य स्वभावतः क्रियाशील प्राणी है। चुपचाप बैठना उसके लिए संभव नहीं है। इसी प्रवृत्ति के कारण समाज में समय-समय पर क्रोध, घृणा, भय, आश्चर्य, शांति, उत्साह, करुणा, दया, आशा तथा हर्षोल्लास का प्रादुर्भाव होता है। साहित्यकार इन्हीं भावनाओं को मूर्त रूप देकर साहित्य का निर्माण करता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बिना समाज के उसका जीवन नहीं और बिना उसके समाज का अस्तित्व नहीं। समाज का केंद्र मनुष्य है तथा साहित्य का केन्द्र भी मनुष्य ही है। मनुष्य समाज के बिना साहित्य का कोई महत्त्व नहीं। यह कहना गलत न होगा कि साहित्य और समाज का संबंध शरीर और आत्मा की तरह अटूट है। साहित्य का जन्म समाज के बिना असंभव है तथा एक सुसंस्कृत और सभ्य समाज की कल्पना साहित्य के बिना अधूरी है। समाज को साहित्य से ही सद्प्रेरणा मिलती है तथा साहित्य समाज के द्वारा ही गौरवान्वित होता है। प्रत्येक साहित्य अपने युग से प्रवाहित और प्रेरित होता है। साहित्य किसी भी समाज व राष्ट्र की नींव होता है। यदि नींव सुदृढ़ होगी तो उस पर बना भवन भी सुदृढ़ और मजबूत होगा।
अभ्यास के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन / सूक्तियाँ जिनका भाव विस्तार या पल्लवन
1. अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
2. अतिशय रगड़ करे जो कोई, अनल प्रकट चंदन तें होई।
3. अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ।
4. आवश्यकता आविष्कार की जननी है।
5. मान सहित विष खाय के शंभु भयो जगदीश ।
6. का वर्षा जब कृषि सुखाने ।
7. आलस्य ही मनुष्य का परम शत्रु है।
8.वृच्छ कबहु नहिं फल भखेँ, नदी न संचै नीर।
9. आचरण ही सज्जनता की कसौटी है।
10. कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।